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MahaKumbh 2025: Makar Sankranti पर 3.5 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं ने संगम में लगाईं डुबकी

आज मकर संक्रांति (Makar Sankranti) है। मकर संक्रांति (Makar Sankranti 2025) का पावन पर्व प्रकृति का पर्व है। इस दिन से ऋतु परिवर्तन का शुभारंभ होता है। यह पर्व सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने पर मनाया जाता है। मकर संक्राति पर खिचड़ी (Khichdi), गुड़, तिल का भोग लगता है और दान भी किया जाता है। कई स्थानों पर इसे खिचड़ी पर्व (Makar Sankranti Khichdi) भी कहा जाता है।

इस बार मकर संक्रांति का अपना अलग ही महत्व है। तीर्थराज प्रयागराज (Prayagraj) में सनातन धर्म का सबसे बड़ा समागम महाकुंभ (Mahakumbh) चल रहा है। ऐसे में मकर संक्रांति की महत्ता और बढ़ गई है। महाकुंभ (MahaKumbh 2025) में मकर संक्राति पर त्रिवेणी संगम (Sangam) के पवित्र जल में डुबकी लगाने के लिए श्रद्धालुओं का जनसागर उमड़ पड़ा। मकर संक्रांति के अमृत स्नान (Amrit Snan) पर महाकुंभ में 3.5 करोड़ से अधिक लोगों ने संगम में डुबकी लगाई।

https://x.com/MahaaKumbh/status/1878980597038923821

मकर संक्रांति और खिचड़ी

नहाय ल्यो खिचड़ी, ना जाड्या लगी…..वाले लोकगीत न जाने कब से और कहां कहां कैसे कैसे गाए जा रहे हैं, जिसे बाद में फिल्मी गीत बना दिया गया……….’सरकाय ल्यौ खटिया जाड़ा लगी’…। हमारी खिचड़ी (मकरसंक्रांति) सुबह सबेरे नहाने से शुरु होकर शाम तक चलती थी। खिचड़ी आती जाती और भेजी जाती थी। बहन बेटियां और नाती नतिनी खिचड़ी की प्रतीक्षा करते थे।

हैसियत खिचड़ी की

खिचड़ी हैसियत के हिसाब से आती और जाती थी। कहां से आई है खिचड़ी…..उसी से रिश्तेदार की हैसियत का आंकलन किया जाता था। फलां की ससुराल आज भी घी और दही भेजना नहीं भूलती। वाह, ढूढ़ी (परंपरागत लड्डू) तो गोपालपुर का होता है, जो देसी घी से पगा रहता है।

Makar Sankranti 2021 : क्या जानते हैं आप क्यूं खाई जाती है आज खिचड़ी? जानिए इसका महत्व | To know why everybody eats khichdi today on makar sankranti and how its beneficial for us

बहंगी, दौरा, ऊंट और बैलगाड़ी से आती थी लेकिन बदलते ज़माने में स्वरुप क्या बदला, सब गड्डमगड्ड हो गया। साइकिल, मोटरसाइकिल, ट्रैक्टर, जीप और अब तो सीधे बैंक खाते में नगद जाने लगा है। खिचड़ी गांव के कुएं, हैंडपाइप और नल से हटकर न जाने कहां बिलाय गई। साधन हुआ तो गांव  की रौनक वहीं सिमट गई। बज्र ठंड में सुबह सबेरे नहाकर आये बड़े बूढों के साथ बच्चे गांव  में कौड़ा और अलाव के चारों तरफ बैठकर हुहुआते लइया चिवड़ा और गट्टे के मजा उड़ाते थे। दिन चढ़ने के साथ दरवाज़े पर आये लोगों को अन्नदान और फिर पकी पकाई खिचड़ी का भोग लगता था…..।

गुम हुई मूंज की डलिया

ननिहाल से आने वाली “खिचड़ी” में बंहगी के दउरे में लाई, चिवड़ा, ढूंढा, ढूंढी, चावल, उड़द की दाल, तिलकुट, सोंठ वाला गुड़ यानी सोठौरा, गट्टा, रेवड़ी, रेवड़ा, दही, देसी घी, पापड़, आलू, गोभी, मूली, अदरक, नमक और हल्दी की गांठें भी होती थीं। इसके साथ मूंज से तैयार की गई रंग बिरंगी कुरुई यानी डलिया जरूर आती थी, जिसे नानी बड़ी शिद्दत के साथ नाती और नतीनियों के लिए तैयार कराके भेजती थीं। अब न जाने कहां बिला गई हस्तशिल्प की वह कला ?

अऩ्नदान ही खिचड़ी

खिचड़ी किसानोत्सव है। अन्नदान का त्यौहार है खिचड़ी। चावल, उड़द दाल, हल्दी, गुड़ और दूब घास का स्पर्श और इसी का दान ही खिचड़ी है। दरअसल सूर्य की परिक्रमा करती पृथ्वी अपनी धुरी पर दक्षिणायन हो जाती है, जिससे सूर्य उत्तरायण हो जाता है । भारतीय ज्योतिष की काल गणना के अनुसार सूर्य मकर राशि में पहुंच कर प्रकृति को गर्माहट देने लगता है। ज्योतिष गणना इसे मकर संक्रांति में पूज्य बना देती है।

खेत खलिहन से गायब हुए खिचड़ी के अऩ्न

दिन गुज़रते गए। न वो नाना नानी रहे और न मूंज की डलिया बनाने वाले हाथ और न रही वो पगडंडी जिस पर डगमगाए बग़ैर रेले चली आती थी वो कहारों की बहंगी लिए टोली। पक्की सड़कों का जाल बिछ तो गया लेकिन ये सारे ताने बाने बिखर से गये। मामा तक तो यह रवायत बनी रही। उनके जाते ही खिचड़ी सवालों में उलझ गई। अब न वह बहंगी रही और न कंधे पर कोसों पहुंचाने वाले कहार। न ही ननिहाल में वह जज़्बा रहा। अब तो वो अन्न भी खेत खलिहान से ग़ायब हो गए जिनसे ढूंढी, ढूंढा और तिलकुट बनता था। वैसे अब यह पिछड़ेपन की निशानी माना जाने लगा है। इस सबके बाद भी मकर संक्रांति आज भी ज़िंदा है. समय बदला है, लोग बदले हैं लेकिन खिचड़ी का स्वाद आज भी महसूस किया जाता है.

लेखक: एस. पी. सिंहवरिष्ठ पत्रकार

 

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