राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की स्थापना के 100 वर्ष पूरे होने पर शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है। इस अवसर पर दिल्ली के विज्ञान भवन में 26 से 28 अगस्त तक तीन दिवसीय विशेष व्याख्यानमाला आयोजित की जा रही है। इसकी अध्यक्षता स्वयं संघ प्रमुख मोहन भागवत कर रहे हैं। कार्यक्रम में राजनीति, न्यायपालिका, राजदूत, कला, खेल, नौकरशाही, कूटनीति, मीडिया और स्टार्टअप क्षेत्र के विशेषज्ञ आमंत्रित किए गए हैं।
तीन दिवसीय व्याख्यानमाला का उद्देश्य संघ के 100 वर्ष की यात्रा पर चर्चा करना, लिए गए फैसलों की समीक्षा, कमियों का आकलन और भविष्य की रणनीति बनाना है। इसके साथ संगठन की सामाजिक और वैचारिक पहुंच बढ़ाने और विभिन्न समुदायों से संवाद स्थापित करने की योजना भी इस बैठक का अंग है।
मोहन भागवत का उद्घाटन संबोधन
पहले दिन मोहन भागवत ने कहा कि स्वयंसेवक और संघ का रिश्ता अटूट है। संघ केवल स्वयंसेवकों के लिए नहीं, बल्कि जनहित के कार्यों में भी मदद करता है। उन्होंने कहा कि संघ का उद्देश्य किसी पर दबाव डालना नहीं है। स्वयंसेवकों को स्वतंत्रता है कि वे अपने अनुभव और समझ के अनुसार कार्य करें। संगठन का सिद्धांत है कि मतभेद हो सकते हैं, पर मनभेद नहीं होने चाहिए। संघ की अपेक्षा केवल इतनी होती है कि संगठन और स्वयंसेवक सुदृढ़ रहें। धीरे-धीरे स्वयंसेवक स्वावलंबी बनते हैं और उन्हें अलग मदद की जरूरत नहीं पड़ती।
संगठन की आत्मनिर्भरता
भागवत ने कहा कि संघ में कार्यकर्ता खुद बनाए जाते हैं, कोई तैयार रूप में नहीं आता। संघ को संचालित करने के लिए स्वयंसेवक साल में एक बार गुरु दक्षिणा देते हैं। यह उनकी निष्ठा और समर्पण की पहचान है। नागपुर का रेशमबाग मुख्यालय से लेकर दिल्ली कार्यालय तक सब स्वयंसेवकों के प्रयासों से बने हैं। संगठन किसी के आगे हाथ नहीं फैलाता और पूरी तरह आत्मनिर्भर है। हर व्यक्ति सही और गलत पर अपनी बात रख सकता है। विरोध के लिए बोलना संघ की नीति नहीं है। उनका कहना था – “ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर, यही संघ की परंपरा रही है।”
हिंदू समाज और भारतीयता का भाव
उन्होंने कहा कि हिंदू एक जिम्मेदार समाज है, जिसका स्वभाव समन्वयकारी है। भारत में हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध और सभी समुदायों को साथ रहना है। भारत माता ने हमें ऐसे ही संस्कार दिए हैं। उन्होंने हिंदुओं के चार प्रकार बताए –
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जो जानते हैं कि वे हिंदू हैं और इस पर गर्व करते हैं।
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जो जानते हैं पर गौरव अनुभव नहीं करते।
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जो जानते हैं पर स्वीकार नहीं करते।
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जो यह भी नहीं जानते कि वे हिंदू हैं।
उन्होंने कहा कि जो लोग खुद को हिंदू नहीं कहते, उन्हें भी भारतीय कहलाने में आपत्ति नहीं। कुछ लोग सनातन को भी स्वीकार करते हैं। संघ का उद्देश्य किसी को हिंदू कहने के लिए मजबूर करना नहीं, बल्कि भारतीयता की असली भावना समझाना है।
भारतीयता कोई भौगोलिक सीमा मात्र नहीं, बल्कि उसमें भारत माता की भक्ति, पूर्वजों की परंपरा और संस्कार निहित हैं। उन्होंने कहा, “चालीस हजार वर्षों से भारत की भूमि पर रहने वालों का डीएनए एक है। यही हमारी साझा एकता और पहचान का आधार है।” उन्होंने यह भी कहा कि हमारी संस्कृति साथ जीने की रही है, विभाजन की नहीं।
2018 के संवाद का उल्लेख
भागवत ने याद दिलाया कि 2018 में भी ऐसा ही संवाद आयोजित हुआ था, जहां मकसद था कि संघ पर चर्चा पूर्वाग्रह से नहीं, बल्कि तथ्यों के आधार पर हो। निष्कर्ष निकालना सुनने वालों की स्वतंत्रता है।
संघ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
संघ प्रमुख ने स्वतंत्रता आंदोलन की विभिन्न धाराओं का उल्लेख करते हुए बताया कि उस समय क्रांतिकारी, राजनीतिक, समाज सुधार और धर्म पुनर्जागरण की चार धाराएं सक्रिय थीं। डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने इन सबमें भाग लिया। उन्होंने सुभाषचंद्र बोस, महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह से संपर्क कर उनके आंदोलनों की कार्यपद्धति को समझा।
इन अनुभवों से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि केवल नेताओं और संगठनों पर निर्भर होकर देश का उत्थान संभव नहीं। समाज के दोषों को दूर कर गुणात्मक सुधार लाना और पूरे समाज को संगठित करना ज़रूरी है। इसी सोच से उन्होंने स्वयं प्रयोग शुरू किया और सफल होने के बाद 1925 में विजयादशमी के दिन संघ की स्थापना की। संघ का लक्ष्य संपूर्ण हिंदू समाज को संगठित करना और भारत को विश्वगुरु बनाने में योगदान देना है।
समाज और शाखा की शक्ति
भागवत ने कहा कि आज संघ की उपलब्धियों पर चर्चा होती है, लेकिन प्रारंभ में स्वयंसेवकों ने भी इस सफलता की कल्पना नहीं की थी। संघ को यह शक्ति समाज से मिली है। स्वयंसेवकों और शाखाओं ने मिलकर संगठन को मजबूत किया है। शाखाओं से स्वयंसेवक निकलते हैं और स्वयंसेवक संघ की रीढ़ हैं। संगठन आज भी वित्तीय और कार्यात्मक रूप से पूरी तरह आत्मनिर्भर है।
भारत को विश्वगुरु बनाना
अपने संबोधन में भागवत ने कहा कि अब समय आ गया है जब भारत दुनिया को मार्गदर्शन दे। आज़ादी के 75 साल बाद भी भारत वह स्थान हासिल नहीं कर पाया, जिसका वह अधिकारी था। उन्होंने कहा कि RSS का उद्देश्य भारत को विश्वगुरु बनाना है। उन्होंने कहा कि किसी एक व्यक्ति, संगठन या सरकार से यह काम नहीं होगा। इसमें हर नागरिक की भूमिका होगी। नेताओं और राजनीतिक दलों की भूमिका सहायक की होगी, असली परिवर्तन समाज में होगा।
स्वतंत्रता संग्राम पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि 1857 की क्रांति के बाद असंतोष को अभिव्यक्ति की आवश्यकता थी। कई धाराएं शुरू हुईं और अंततः कांग्रेस नेतृत्व में आंदोलन आगे बढ़ा। वीर सावरकर को क्रांतिकारी धारा का तेजस्वी प्रतिनिधि बताया और कहा कि आजादी के बाद उन्होंने पुणे में अपने अभियान का समापन किया।
भागवत ने कहा कि हम कभी विश्व सभ्यता के शिखर पर थे। आक्रमणों के चलते दासता में फंसे और दो लंबी पराधीनताओं के बाद स्वतंत्र हुए। स्वतंत्रता पहला कदम था। राष्ट्र को आगे बढ़ाने के लिए मुक्त समाज आवश्यक है, क्योंकि बंधन में बंधा व्यक्ति किसी के लिए कुछ नहीं कर सकता।
हिंदू शब्द का महत्व
भागवत ने कहा कि संपूर्ण हिन्दू समाज का संगठन आवश्यक है। ‘हिंदू’ शब्द हमारे लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सभी को समाहित करता है। यह न तो किसी का बहिष्कार करता है और न विभाजन करता है। हिंदू समावेशी है और समावेशिता की कोई सीमा नहीं।
हम भारत माता के नागरिक हैं और उनकी स्वतंत्रता से समझौता नहीं कर सकते। “वंदे मातरम” हमारा अधिकार है और इसे नकारना असंभव है।
दिल्ली में आयोजित यह शताब्दी वर्ष व्याख्यानमाला केवल उत्सव नहीं, बल्कि आत्ममंथन और भविष्य की दिशा तय करने का प्रयास है। मोहन भागवत के उद्बोधन ने संघ की आत्मनिर्भरता, भारतीयता की परिभाषा, हिंदू समाज की एकता और भारत को विश्वगुरु बनाने की संकल्पना पर व्यापक चर्चा की।